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आधी धूप

सुनीता बुद्धिराजा

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2677
आईएसबीएन :81-85830-27-4

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प्रस्तुत है सुनीता बुद्धिराजा की कवितायें...

Aadhi Dhoop

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज़िंदगी कितनी हमागीर है कितनी पुरशोर
और इस शोर में नऱमों की हकीकत कितनी ?’

ज़िंदगी के इस व्यापक चक्र में बहुत कुछ मिल सकता है, पद-प्रतिष्ठा, वैभव या फिर उपेक्षा, कुण्ठाएँ, अँधेरा, असफलता, पर इस सारे व्यवहारिक मायाजाल में अगर कुछ खोने लगता है तो वह है जीवन जीने का रस। कवि का मूल संघर्ष है इस तमाम चक्र के बीच से गुज़रते हुए, उलझते हुए, पिसते हुए भी किसी तरह इस रस के कुछ कणों के बचाए रखना। बचाए रखना कुछ स्मृतियों को, अनुभूति के कुछ विशिष्ट क्षणों को, कुछ संवोदनाओं को और उस एक कच्चे किशोर मन को जो सहज विश्वास, कमनीय कल्पनाओं, अछूते समर्पणों और पवित्र प्रार्थनाओं को सहेज-कर रखने वाला मन होता है। सुनीता की अधिकांश कविताएँ उसी एक मन की कविताएँ हैं, कभी उस मन के सहद रस प्रवाह में डूबते हुए, कभी जगत् के जंजाल और बीतते काल के समक्ष उस मन या उस मन की सार्थकता और शाश्वतता या संशय के प्रश्न-चिह्न लगाते हुए, कभी कोई रास्ता न पाकर मन को सजीव प्रार्थना बनाते हुए सुनीता की अनेकानक कविताएँ हैं जो पाठक को अंधेरे में चमककर बुझ जानेवाली जुगनू की झलक दे जाती हैं, फूले हुए हरसिंगार की महक दे जाती हैं, कहीं-कहीं उनमें एक थकावट का अहसास या निराशा के प्रार्थना में बदल जाने का संवेदन दे जाती हैं, ऐसी तमाम कविताओं में मुझे सबसे उल्लेखनीय लगी है उनकी कविता, ‘एक था मन’, उसकी कुछ प्रारम्भिक पंक्तियाँ हैं—

एक मन था
कभी-कभी खुश और उदास था मन
और कभी दूर या पास था मन
मेरी तुम्हारी बात था मन
स्मृतियों का, फूलों का
हाशिये पर लिखी अनगिनत भूलों का
साक्षी था मन
राम जी का, सिया का वनवास था मन
एक था मन....

उस मन को बचाए रखने का प्रयास केवल उसके संवेगों और पीड़ाओं को बचाए रखने का प्रयास ही नहीं है, अनजाने में उस मन के स्पंदनों को अनजानी प्रार्थना में बदलते जाने के संक्रमण को भी पहचानने का प्रयास है—पर उस संक्रमण को किसी आध्यात्मिक घटाटोप या बड़े-बड़े प्रेम-दर्शन के वायदों या शपथों में बदलने की प्रयास नहीं है, उस विराट् प्रक्रिया से समक्ष अपनी साधारणता और लघुता की खुली स्वीकृति भी है—

तुम्हें निहारुँ
छू लूँ
तुम्हारी कृपा के क्षण सँजो
उनमें एक इतिहास बुनूँ
वंशी बनने की कामना
मैंने नहीं की
बनूँ में तुलसी का बिरवा
गुम होती प्राची की धार
या चाहो तो पैरों के पास
झरता हरसिंगार
मौन से पहले
पुकारो एक बार
फिर मुझे तुम्हारा हर निर्णय
स्वीकार मुझे
देवता
तुम्हारा हर निर्णय

हरसिंगार, जुगनू, वंशी और नदियों के बिंबों के द्वारा एक रुमानी संसार का निर्माण कर यह खतरा था कि सुनीता स्वयं अपनी काव्य मानसिकता द्वारा निर्मित चहारदीवारी में अपने को सुरक्षित कर यथार्थ से अपने को विच्छिन्न कर लेतीं। लेकिन ऐसा नहीं है। कटु यथार्थ का वह साक्षात्कार करती हैं, उसमें अपनी स्थिति बनाए रखती हैं, प्रसंगवश यह बताया जा सकता है कि कवयित्री एक अतिव्यस्त उच्चपदासीन महिला हैं और प्रबंधन में कुशल भी, लेकिन वह सफलता उनके लिए आत्मश्लाघा नहीं बनती। वह उस चमक-दमक के आंतरिक यथार्थ से भली-भाँति अवगत हैं—

चश्मे के भीतर नजरें
सामने झुकतीं
और पीछे चुभती हैं
अपने बारे में मिथ्यावाचन की पूरी
छूट
सच्चाई का मापदण्ड
ढँका-पुता झूठ,
वर्जनाओं और अभ्यर्थनाओं के बीच
उजाड़मन लोगों की एक बस्ती है
बहुत दिन हुए देखे आसमान
बिजली की घड़ी, सुई धीरे खिसकती है
हम विकासशील देश की महान संस्थाओं के
कर्मचारी हैं
रोज़ सवेरे उगने के लिए
सूरज के आभारी हैं

रूमानी कल्पनाओं में खो जाने का ख़तरा तो है ही, यह भी ख़तरा है कि इस यांत्रिकता के बीच वह कच्चा संवेदनशील मन रिक्त होता चला जाए, कुछ भी बाकी न रहे। सुनीता इस सब रीतने, चुक जाने की स्थिति को भी एक अर्थ देने का प्रयास करती हैं—और यही प्रयास उनकी कविता की विशिष्टता बन जाता है। हमागीर और पुरशोर ज़िदगी में प्रार्थना के स्वर भी शोर बन जाएँ, यह संभव है, पर सुनीता का काव्य मानस उसके बीच से भी एक राह ढूँढ़ने की कोशिश करता है। उनकी ही कविता से अपनी बात का समापन करूँगा—

बाकी कुछ नहीं रहा
प्रभु,
सूर्य की एक-एक किरण बन, दर्द
समंदर में
डूबता रहा
तुम तक पहुँचने के पहले ही
प्रार्थना स्वर
शोर बन
टूटता रहा
तुम्हें समर्पित करने को
अब कुछ नहीं प्रभु !
सिर्फ़ एक प्यास है
उसे ही प्रणाम समझो

सुनीता के काव्य मानस का यह प्रणाम उन्हें और व्यापक दृष्टि तथा और संवेदन दे, यही शुभकामना है।

आधी धूप

चौदहवीं मंज़िल के उस कमरे की खिड़की से हर रोज़ उगता वह नया सूरज एक अजीब-सा ख़ालीपन देनेवाला था। उदास-उदास सुबह, हालाँकि सामने के आसमान पर उसकी रंगत रोज़ बदल जाती थी, नीली, बैंगनी, लाल—जैसा मौसम हो, जितने बादल हों। हर दिन उस उदासी में डूबना भी अपनी तरह का नया ही अनुभव था, वह उदासी, वह रंगत क्या कोई किसी के साथ बाँट सकता है ? लाल के जितने शेड्स हो सकते हैं, वे सारे-के-सारे वहाँ थे। जितनी तरह की उदासियाँ हो सकती हैं, उतनी तरह की उदासी भी वहाँ थी। नीचे बहती नदी, तैरते पक्षी और सामने बर्फ़ीले पहाड़ों को देख बस एक ही मन होता था—इसे आगे आनेवाली पीढ़ी को सौंपना मेरा दायित्व है, रंगों के सुख का यह आकाशीय विस्तार सिर्फ़ मेरा नहीं, उसे दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाना है। किंतु, कैसे सौंप दूँ मैं उसे ? किसे दे दूँ ?

कोई नहीं है आस-पास, उन रंगों को देख आँखें छलछला आती हैं। उस नीले-बैंगनी आकाश की छायाएँ—गले में एक मोटी-सी बूँद अटकती है, यह सूर्य यहीं रह जाएगा, यह आकाश यहीं रह जाएगा, यह बहती नदी यहीं रह जाएगी, बर्फ़ीले पहाड़, चीड़ के पेड़—सब कुछ। इन्हें मैं किसी को नहीं सौंप सकती।

अनुभव जब विवशता बन जाए, कविता तभी जन्म लेती है। कम-से-कम मेरी कविताएँ, बहुत-सी, ऐसे ही लिखी गयी हैं। मुझे भी सुनायी देता था सन्नाटों को बींधता वह पहाड़ी झरनों का खिलखिलाना, पर मैं उस खिलखिलाहट को कभी किसी के साथ बाँट पायी क्या ? कविता लिखना वैसे ही विवशता बन गया, जैसे जब तक जीवन है, तब तक साँस लेना। फिर भी, यह विवशता बहुत प्यारी-सी है।

कॉलेज के ज़माने में हर कोई कविता लिखता है, मैं भी लिखती थी तब, यूँ ही लिखने के लिए। अब कॉलेज छोड़ने के सत्रह साल बाद भी जब कविता लिख रही हूँ, तो सोचती हूँ कि वह लिखना भी ‘यूँ ही’ नहीं था, तब भी वह विवशता थी—अपने को किसी के सामने न खोल पाने की। किसी प्रतियोगिता में माथुर साहब (गिरिजा कुमार माथुर) से मुलाकात हुई। रमानाथ जी से मुलाकात हुई। पंडित सुरेंद्र तिवारी से मुलाकात हुई। मैं तो कविताओं के सरोवर में तैरने लगी। फिर मेरी पाँचों घी में सिर कड़ाही में। मैंने भारती जी की कविताओं को महसूस किया, सबसे ज्यादा ‘कनुप्रिया’ को। अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ और दुष्यंत कुमार की ‘पेड़ों के साये में धूप लगती है’ से मुझे प्यार हो गया। बस मैं उड़ती गयी, अपने आप को बाँटने की कोशिश में कविताएँ बनती रहीं।

एक पूरी ज़िंदगी जीने का जो सुख-दुःख होता है, वह पंडित सुरेंद्र तिवारी के निकट ग्यारह साल में मैंने महसूस किया। उनका प्यार, दुलार, डाँट, बीमारी, सब कुछ देखते-देखते, झेलते-झेलते अचानक एक दिन कविता कहीं खो गयी। मेरी विवशता, मेरे अनुभव सब खो गए। बीच के दो-तीन साल जो कुछ घटता था, सिर के ऊपर से हवा बनकर निकल जाता था, बिना स्पर्श किये। पानी की लहर जब किनारे को छूती है तो वापस जाते-जाते रेत पर बने पैरों के निशान भी अपने साथ ले जाती है। मेरे साथ भी कुछ वैसा ही हुआ। उन सालों में सब कुछ पानी के साथ बह गया था। बस मेरी माँ, वही रहीं मेरे साथ, हर पल, हर क्षण, मेरी हर हँसी, हर आँसू में मेरे साथ।

अचानक कैसे कविता वापस लौटी, मुझे पता नहीं चला। बस वह लौट आयी। विस्मय से लेकर ईश्वरीय सत्ता से बातें करने तक की कविताएँ—वे सब किसी अंतरंगता में लिखी गयी थीं। किसी ने पूछा, ‘सुनी, तू कैसी है’ ? ‘सुनी, तू क्या है ?’ ‘सुनी, तू अच्छी नहीं है’। ‘सुन तू बहुत अच्छी है’। बगीचे में पत्ते कभी नये निकलते, कभी झर जाते, अलग-अलग मौसम का अलग-अलग रंग।

उन सभी कविताओं को मैं आपको सौंपती हूँ, क्योंकि सचमुच अब मैं खुद को अपने तक समेट कर नहीं रखना चाहती। अपने धर्म का संपूर्ण न सही, किंचित् निर्वाह तो मुझे करना ही होगा न !

‘आधी धूप’ की कविताएँ सुबह से पहले की हैं, सुबह से बाद की हैं। अभी दुपहर आयी नहीं, क्योंकि करने को बहुत कुछ बाकी है।
-सुनीता बुद्धिराजा

परछाईं और मेरे पाँव

मेरे पाँव जमीन पर हैं
और आँखें आसमान में
एक उलझन है
सुलझा दो
मैं अपनी परछाईं कैसे देखूँ

तुम
मेरे दोस्त होते
तो तुमसे कहती कि अपना चेहरा
मेरे चेहरे के सामने फ़िट कर दो
आसमान में
कि मेरी उलझन सुलझ जाए
कि मैं तुम्हारी आँखों में ही
अपनी परछाईं खोज लूँ

पर तुमने भी तो ठेका नहीं लिया है
किसी की उलझनों को कम करने
और अपनी उलझनें बढ़ाने का
तुम्हें क्या कि अपनी परछाई को
मेरी आँखों में खोजो

मेरी चोटियों के देख
तुमने क्यों कहा कि वे साँप-सी हैं
मैंने तुम्हें कभी डसा था क्या ?
मैंने तो सिर्फ़ इतना किया था
कि रोटी सेकते वक्त
एक रोटी तुम्हारे नाम की भी बना ली थी

पर तुम्हीं ने तो कहा था
उस फ़ालतू रोटी को
मैं चिड़ियों को चुगा दूँ
या फिर खिला दूँ पड़ोसियों के कुत्तों को

तुम मेरे दोस्त होते तो कहते
वह रोटी मैं ही खा लूँ
अब मैं क्यों जपूँ माला तुम्हारे नाम की
तुम्हारी आँखों में अपनी परछाईं
कैसे देखूँ ?

मैंने अपनी परछाईं नहीं देखी
तभी तो
यह भी नहीं देख पायी
कि तुम्हारे पैरों के पास
कितनी परछाइयाँ और हैं

मैंने तो सिर्फ़ इतना किया
कि खुद को भी
मेज़ की चार टाँगों में से एक समझ लिया
उस वक्त नहीं सोचा था
टाँग और भी फ़िट हो सकती है
ग़लती जरूर हुई
मैंने खुद को मेज की सतह नहीं माना
और तुम मेरे दोस्त भी नहीं हो

अब तुमसे कैसे कहूँ
मुझे अपनी परछाईं देखनी है ?

एक था मन

एक था मन
कभी-कभी खुश और उदास था मन
और कभी दूर या पास था मन
मेरी तुम्हारी बात था मन
नये-नये गीतों का
स्मृतियों का, फूलों का
हाशिये पर लिखी अनगिनत भूलों का
साक्षी था मन
रामजी का सिया का वनवास था मन
एक था मन

कभी-कभी जुगनू की कौंध था मन
हाथों की मेंहदी की महक था मन
नन्हीं-सी चिड़िया की चहक था मन
कहा-अनकहा-सा
सुना-अनसुना-सा
पीले और लाल
चंपई पराग-सा
नीम की कोंपल-सा
गुलमुहरी आग-सा
नया था मन
अधबोला कोई संवाद था मन
एक था मन

सूरज था मन
चाँद था मन
बरसाती नदी की बाढ़ था मन
नीरव था, भैरवी की तान था मन
दुलहन के माथे की टिकुली था मन
फूली हुई सरसों का
पायल की रुनझुन का
सूत का, कपास का
हिसाब था मन
जाने किस सवाल का जवाब था मन
एक था मन

बूढ़ा था मन
जवान था मन
पहलौठे बच्चे की सँभाल था मन
अक्षत था मन, रोली था मन
देव था, याचक की झोली था मन
अधूरे किसी स्वप्न का
बिन बरसे मेघ का
चुकी हुई देह का प्रवास था मन
अकसर किसी सच का अहसास था मन
एक था मन

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